सोमवार, 8 दिसंबर 2008

बम और हम! भाग-1

हम एक-दुसरे की आंखो में आंखे डालकर तो देख नही सकते,और जब आंखो में ही इतनी निश्छलता,निर्दोषिता नही है,इतनी भी निर्भीकता नही है.तब हम आपस में एक-दुसरे से प्रेम कैसे करेंगे और प्रेम नही करेंगे तो बंधुत्व और एकता कहां से होगी?एसे में जब हम राष्ट्रिय एकता की बाते करते है,तो क्या हम सिर्फ़ अपने-आपको सात्वना ही नही दे रहे होते है,क्या हम यही नही भीतर से जान रहे होते है की हम सिर्फ़ एसी बाते कर रहे है,जिनमे हम कोई अर्थ ख़ुद नही भर पाते?माफ़ कीजिये मेरे मुल्क के लोगो-मैंने यह सच कह दिया है.यह सच बुरा लग सकता है,मगर सच यही है की आज हम परस्पर एक-दुसरे से भयभीत है और अपनी सुरक्षा चाहते है-हमें एक-दुसरे पर विशवास नही है,क्योंकि हम निर्भय नही है,सिर्फ़ इस भय से की हम सुरक्षित है,एक-दुसरे पर संदेह के सच पर पर्दा डालकर बंधुत्व की बाते करते है,राष्ट्रिय-सामाजिक एकता की बाते करते है.मुझे एक बात पसंद आई जो न्यायमूर्ति पि.बी.सावंत ने कही की 'यह आतंकवादी हमले होते क्यों है?उनका मूल हमें खोजना चाहिए'मै समझता हूं की यह कर्तव्य हर एक भारतीय का है,हर उस व्यक्ति का है जो चाहता है की भारत ही नही दुनिया में कही कोई आतंकबाद न हो!और यह तब ही संभव है जब भयमुक्त जीवन जीने में हम समर्थ हो,क्योंकि भय और हिंसा ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु है,और यही सिक्का वर्तमान विश्व-मानव समाज में चल रहा है, खे यह तब से चल रहा है जब मनुष्य और मनुष्य में परस्पर संदेह पैदा हुआ,संदेह से भय पैदा हुआ और भय से हिंसा पैदा हुई.जैसे ही मनुष्य और मनुष्य में परस्पर संदेह पैदा हुआ-प्रेम,बंधुत्व,रिश्ते समाप्त हो गए,सिर्फ़ घृणा व शत्रुता पैदा हुई,और सम्पूर्ण समाज धीरे-धीरे इसी घृणा व शत्रुता का शिकार होता चला गया!हम में परस्पर विशवास नही है,क्यों?विशवास तो बहार की चीज है.भगवान् है,धर्म है,सत्य है,जीवन है,असित्व है-जब हम यह सीखते है तो कही अविश्वास-कही संदेह-कही भय पैदा होता है.जब हम अनुभव से से जानते है,जब हमें सिखने की जरुरत नही पड़ती,तब हम बिना प्रयास के एक-दुसरे पर विशवास करते है,प्रेम करते है.एक हत्यारे के बगल में उसकी प्रेमिका निश्चिंत सो जाती है-क्योंकि उसे मालुम है की वह उसे प्रेम करता है.वहां भय नही है,जहाँ प्रेम होता है वहां भय नही होता,जहाँ भय है वहां प्रेम नही है,दोनों उसी तरह प्रतिकूल स्थितिया है-जसे अंधेरे-उजाले,रात व दिन जैसी स्थितिया है.तुलसीदास ने लिखा है 'भय बिनु होई प्रीती'-मै इसके पक्ष में नही हूं दरअसल इसे ही जीने का मन्त्र मन लिया गया है.जरा आप देखिये माता-पिता व शिक्षक तक बच्चो में भय पैदा करते है और चाहते है की वे उसे प्रेम करे?यह कैसे संभव है?हम बुनियाद ही ग़लत दाल रहे,बिज में ही भय का जहर-तब प्रेम पूर्ण,भयमुक्त निर्भीक समाज या मानव विश्व का निर्माण कैसे करेंगे?तब हम सिर्फ़ एक-दुसरे से स्वार्थो के जरिय जुड़े रहेंगे-जैसे ही हम पाएंगे की हम एक-दुसरे का इस्तेमाल नही कर सकते,एक-दुसरे का शोषण नही कर सकते,अपने स्वार्थ नही साध सकते,हम संबंधो को खत्म कर देंगे,यही हमारी असलियत है आपको बुरा लगे तो लगे!परिवार,फ़िर समाज,फ़िर राज्य,सरकार और यह दुनिया...सबके-सब परस्पर अविश्वास संदेह व भय के आधार पर खडे है,यही आतंकवाद या हर तरह की हिंसा का एकमात्र कारन है,हमारे धर्म कहते है प्रेम करो!क्यों?क्योंकि जिन्होंने उन धर्मो का परवतन किया,वे धर्म का परवतन नही बल्कि प्रेम का परवतन करना चाहते थे.धर्म तो हमने बना लिए.पंथ,समुदाय,संप्रदाय हमने बना लिए.शब्दों से हम खेलने लगे वे जानते थे की हम-इस दुनिया के सबसे विवेकशील मने जाने मनुष्य प्रेम कर नही पा रहे है,भीतर प्रेम प्रकट ही नही हो पा रहा है,तब बहार प्रेम कैसे हो?उन्होंने इसलिए हमें प्रेम का संदेश दिया.प्रेम पर इसलिए सर्वाधिक बल दिया गया,क्योंकि प्रेम के बिना घृणा,भय,संदेह,हिंसा व विनाश के सिवा कुछ हाथ नही लगता.हमारी शिक्षा ही प्रेम के खिलाप खड़ी है,हमारे शिक्षक ही प्रेम नही करते.हमारी शिक्षा ही भेदभाव,महत्वकांक्षा,प्रतिस्र्पधा की भयानक हिंसा के अधारो पर खड़ी है,तब हम किस तरह अहिंसक,करुना से परिपूर्ण व भयमुक्त निर्भीक समाज का निर्माण किया जान सकता है.परस्पर बंधुभाव पैदा करने की जरूरत ही नही होनी चाहिए.यह भावः भीतर से स्वाभाविक प्रकट होना चाहिए.जब तक एसा नही होता.जब तक हमारे हिरदय में निर्मलता नही होती तब तक बहार हम हिंसा ही पैदा कर सकते हैदुःख ही पैदा कर सकते है,और अगर प्रेम होता तो हम एक-दुसरे का एक पैसा का,एक क्षण भी शोषण नही कर सकते,तब न तो कोई भेदभाव कर सकता,न कोई किसी से अतिरिक्त लाभ ले सकता,नही कोई किसी को नुकसान पहुचाने की बात भी सोच सकता,चूँकि आज यह सब है,इसलिए हमें पुरी प्रमाणिकता,पुरे साहस से यह स्वीकार कर लेना चाहिए की हम एक-दुसरे से प्रेम नही करते,और इसलिए हिंसा है,विनाश है,युद्ध है,आदमी के हाथो आदमी मरे जान रहे है,आप भी खोजे!अपने भीतर उस सच को,जो इस बाहर के दुःख का कारन बता देता है.मुझसे सहमत हो या न हो,लेकिन जब तक हम परस्पर प्रेम नही कर पाते,इस जगत में आतंकवाद जारी रहेगा.अंत में जाते-जाते एक बात आप सभी से कहना चाहूँगा...'जब तक हम इतने निर्दोष न हो की एक-दुसरे की आंखो में आंखे डालकर देख सकेतब तक आतंकवाद जारी रहेगा!

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2 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

भाई आप की एक एक बात से सहमत है,
धन्यवाद, सुंदर ओर सटीक लेख के लिये

Alpana Verma ने कहा…

bilkul aap ki baat se sahmat hain.
bahut achchee soch aur lekhan hai.

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